Wednesday, December 29, 2010

मोहसिन

मोहसिन और में एक ही विद्यालय में साथ पढ़ा करते थे. कक्षाएं भिन्न होने के बाईस विद्यालय में हमारे गुट अलग अलग थे. परन्तु मेरा पड़ोसी भी था, इसलिए शामें साथ ही कटा करती थीं. नम्मी कक्षा की अध्वार्शिक परीक्षाओं से फ़ारिग हो मोहसिन और मैं  जाड़ों की छुट्टियों का लुत्फ़ उठा रहे थे. सवेरे सवेरे कॉलोनी की कच्ची सड़क पर गुप्पी खोद हम लोग कंचे खेलने में मसरूफ़  हो जाते. फिर दुपहर का भोजन कर लट्टू घुमाने में जुट जाते, और दुपहर हल्की होते ही अपनी अपनी साइकिल ले सैर पर निकल जाते.
दुपहर गिरने लगी ही थी जब में लट्टू रखने और साइकिल की चाबी लेने घर के भीतर दाखिल हुआ. माँ छत्त पर बैठे स्वेटर बुन रही थी, पिताजी उस समय जयपुर में कार्यरत थे, और चेहरे पर मोटा ऐनक डाले बड़ा भाई स्टडी रूम में बैठा गणित के नुस्खों का रट्टा लगा रहा था. मैं छुट्टे पैसे जुगाड़ने हेतु आलो में तफ़्तीश करने लगा. मुड़कर देखा तो मोहसिन कमरे के भीतर था. में चौंकने की अभिव्यक्ति कर  पाता उससे पहले उसने दरवाज़ा बंद कर दीया  और मेरी जानिब कूद, मेरे ऊपर बैठ अपने कूल्हों को हिलाने लगा. मैंने बिगड़कर उसे ज़ोर से धक्का दीया; पर्तिक्रिया में शर्म हया तो छोड़ो, दांत और फाड़ कर हसने लगा. मैंने बिगड़ते हुए उसे एक और धक्का दीया और कमरे से बाहर खदेड़ दीया.
हम दोनों अपनी अपनी साइकिल ले युनिवरसिटी वाली सड़क की ओर सैर हेतू रवाना हो गए. क्या पुर्फिज़ा थी. सड़क पर ज़्यादातर हलचल शाम के सैर वाले लोगों की ही थी. एक आध स्कूटर गाडी दौड़ते दिख जाये तो गनीमत थी. जब भी कोई शीशों पर फिल्म चढ़ी गाड़ी गुज़रती थी, तो में और मोहसिन नज़र गड़ा उसे गुज़रते हुए देखा करते थे, और गौरतलब कीया करते थे कि उस गाड़ी में कोई लड़का-लड़की थे या नहीं. युनिवरसिटी क्वाटरों वाली रोड २ किमी. नापने के बाद हम युनिवरसिटी कैम्पस में दाखिल हो गए. कैम्पस में विद्यमान जिमखाना के ठीक पीछे एक पुराना स्टेडियम हुआ करता था. हमारी सैर का आधे से ज्यादा वक़्त इसी स्टेडियम के पास कैम्पस के उन छात्रों के इंतज़ार में बीता करता था, जो अक्सर अपनी प्रेमिकाओं को लेकर स्टेडियम के कंपाऊंड में आया करते थे, और इज़हारे-मोहब्बत कीया करते थे. मोहसिन और में किशोर अवस्था के धनी थे. ज़ाहिर है हमारी अनेक जिज्ञासाओं से मुक्तलिफ़ एक यह भी जिज्ञासा थी.
इस युनिवरसिटी का क्षेत्रफल अधिक होने के कारण और निर्माण कम होने के बाईस जगह का फ़ैलाव अधिक था. गायें, भैंसें और बकरियों के टोले घास चरते हर तरफ नज़र आते थे. एक अधेड़ उम्र का आदमी स्कूटर पर एक महिला को बिठाये स्टेडियम की ओर जाते नज़र आया तो मोहसिन ने मेरा कन्धा झंझोड़ मेरी तवज्जो चाही "देख देख." मैंने नज़र गड़ाते हुए कहा "पर ये लड़का नहीं है, कोई लेक्चरार मालूम पड़ता है." मोहसिन बेतक्कल्लुफ़ अंदाज़ में बोला "अरे कोई भी हो, जायेगा तोह उधर ही, करेगा तो वही ही." और ऐसा कहकर वह मेरा नेत्रित्व करने लगा, और मैं उसके पीछे पीछे चलने लगा. स्टेडियम के आस-पास की वायु दूषित थी. कूड़े कचरे की चादरें  स्टेडियम से लगकर दूर दूर तक फ़ैली थी . और स्टेडियम कूड़े कचरे का केंद्र. नीम के ऊंचे ऊंचे पेड़, जिसकी शाखाओं पर ना जाने क्यूँ मुझे सांप लिपटे नज़र आते थे. चन्द आवारा बिल्ले जबड़ों में कबूतर दबाये नज़र आ जाते. असहनीय बू के बाईस मेरी नाक सिकुड़ जाती और ललाट पर बल पड़े रहते. वहीँ मोहसिन के चेहरे पर खजाने की खोज-खपत समान जिज्ञासा मौजूद रहती. दो कदम आगे चलने वाला मोहसिन हातों से इशारे कर मुझे आगे बढ़ने के निर्देश दीया करता, और बड़ी सावधानी से बंकर तलाशता, जहाँ से हम पूरी गतिविधि पर नज़र रख सकते थे.
थोड़ा आगे बढ़े तो उस अधेड़ उम्र के आदमी का स्कूटर खड़ा नज़र आया, जो हूबहू मोहसिन के पीले रंग के प्रिया स्कूटर से मेल खता था. वही रंग, वही कम्पनी और स्टेपनी कवर पर छपा वही लक्खानी जूतों का इश्तिहार. "मोहसिन.. यार ये स्कूटर तो तेरे अब्बा का लगता है." मोहसिन, जो स्टेडियम की दीवार की आढ़ लेकर उस अधेड़ उम्र के आदमी और उस लड़की को देखने की कोशिश कर रहा था यकायक मुड़ा, और मेरी ओर दौड़कर आया और स्कूटर देखने लगा. अपने अब्बा का स्कूटर पाकर मोहसिन हक्का बक्का रह गया, और दौड़कर दीवार की ओर चला गया. उत्सुकता बढ़ गयी थी. मैं भी मोहसिन के पीछे पीछे दीवार की ओर लपका, और मोहसिन को ढाल बनाकर नज़ारा देखने लगा. मोहसिन फटी आँखों से अपने अब्बा को उस लड़की के कुर्ते के बटन खोलते देखने लगा. मुझे हसी आ रही थी, परन्तु मैंने ऐसा व्यक्त नहीं होने दीया , अन्यथा मोहसिन को और बुरा लगता. मारे शर्मिन्दगी के मोहसिन जार-जार रोने लगा. मैंने दुःख की अभिव्यक्ति प्रकट की और बोला "क्या करोगे मोहसिन?" मोहसिन, जिसकी आँखें आसुओं से लबालब भरी हुई थी एकाएक भागने लगा, और साइकिल पर सवार हो गायब हो गया. उसके अगले दिन मैं हफ़्ते भर के लिए अपने पिताजी के साथ जयपुर चला गया जहाँ वे कार्यरत थे. वापिस लौटा तो अपनी दादी से मालूम हुआ कि मोहसिन की अम्मी ने अपने खाविंद से तलाक़ ले लीया है, और मोहसिन के साथ वह अपने मैके सियालकोट चली गयी हैं.
आज तकरीबन २० वर्ष बाद मोहसिन के मुत्ताल्लिक सोचता हूँ तो यही राय कायम करता हूँ कि उसने अपने बाप की हरकत से ज़रूर नसीयत हासिल की होगी, और एक सच्चे आदमी की ज़िन्दगी बसर कर रहा होगा. या यह भी मुमकिन है कि वह भी अपने अब्बा के मुत्ताल्लिक शेह्वत का पिशाज हो.  

3 comments:

  1. अच्छी पोस्ट , नववर्ष की शुभकामनाएं । "खबरों की दुनियाँ"

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  2. dhanyawad!...naya sal aapko bhi mubarakh.

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  3. sundar post

    नववर्ष 2011 की हार्दिक शुभकामनाएँ.


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